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दि॒वि पृ॒ष्टोऽअ॑रोचता॒ग्निर्वै॑श्वान॒रो बृ॒हन्। क्ष्मया॑ वृधा॒नऽओज॑सा॒ चनो॑हितो॒ ज्योति॑षा बाधते॒ तमः॑ ॥९२ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

दि॒वि। पृ॒ष्टः। अ॒रो॒च॒त॒। अ॒ग्निः। वै॒श्वा॒न॒रः। बृ॒हन् ॥ क्ष्मया॑। वृ॒धा॒नः। ओज॑सा। चनो॑हित॒ इति॒ चनः॑ऽहितः। ज्योति॑षा। बा॒ध॒ते॒। तमः॑ ॥९२ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:33» मन्त्र:92


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर विद्वान् लोग क्या करें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वान् मनुष्यो ! जैसे (दिवि) आकाश में (पृष्टः) स्थित (वैश्वानरः) सब मनुष्यों का हितकारी (क्ष्मया) पृथिवी के साथ (वृधानः) बढ़ा हुआ (ओजसा) बल से (बृहन्) महान् (चनोहितः) ओषधियों को पकाने रूप सामर्थ्य से अन्नादि का धारण (अग्निः) सूर्यरूप अग्नि (ज्योतिषा) अपने प्रकाश से (तमः) रात्रिरूप अन्धकार को (बाधते) निवृत्त करता और (अरोचत) प्रकाशित होता है, वैसे उत्तम गुणों से अविद्यारूप अन्धकार को निवृत्त करके तुम लोग भी प्रकाशित कीर्तिवाले होओ ॥९२ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो विद्वान् लोग सूर्य अन्धकार को जैसे, वैसे दुष्टाचार और अविद्यान्धकार को निवृत्त कर विद्या प्रकाशित करें, वे सूर्य के तुल्य सर्वत्र प्रकाशित प्रशंसावाले हों ॥९२ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनर्विद्वांसः किं कुर्युरित्याह ॥

अन्वय:

(दिवि) प्रकाशे (पृष्टः) सिक्तः स्थितः (अरोचत) रोचते प्रकाशते (अग्निः) सूर्याख्यः (वैश्वानरः) विश्वेषां नराणां हितः (बृहन्) महान् (क्ष्मया) पृथिव्या सह। क्ष्मेति पृथिवीनामसु पठितम् ॥ (निघं०१.१) (वृधानः) वर्द्धमानः (ओजसा) बलेन (चनोहितः) ओषधिपाकसामर्थ्येन अन्नादीनां हितः (ज्योतिषा) स्वप्रकाशेन (बाधते) निवर्त्तयति (तमः) रात्र्यन्धकारम्। तम इति रात्रिनामसु पठितम् ॥ (निघं०१.७) ॥९२ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वांसो मनुष्याः ! यथा दिवि पृष्टो वैश्वानरो क्ष्मया वृधान ओजसा बृहन् चनोहितोऽग्निर्ज्योतिषा तमो बाधतेऽरोचत च यथा श्रेष्ठैर्गुणैरविद्यान्धकारं निवर्त्य यूयमपि प्रकाशितकीर्त्तयो भवत ॥९२ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। ये विद्वांसः सूर्यः तम इव दुष्टाचारमविद्यान्धकारं च निवर्त्य विद्यां प्रकाशयेयुस्ते सूर्य इव सर्वत्र प्रकाशितप्रशंसा भवेयुः ॥९२ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. सूर्य जसा अंधःकार नष्ट करतो तसे विद्वान लोक दुष्टाचार व अविद्येच अंधःकार नाहीसा करून विद्येचा प्रसार करतात. ते सूर्याप्रमाणे तेजस्वी बनतात व प्रशंसेस पात्र ठरतात.